महाराजा प्रवीर चन्द्र भंज देव || महाराजा प्रवीर चन्द्र भंज देव का जीवन और इंदिरा गांधी से उनके मतभेदों की कहानी बहुत दिलचस्प और दुखद है

महाराजा प्रवीर चन्द्र भंज देव का जीवन और इंदिरा गांधी से उनके मतभेदों की कहानी बहुत दिलचस्प और दुखद है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं।



प्रारंभिक जीवन और शासन

जन्म与विरासत: प्रवीर चंद्र भंज देव का जन्म 1929 में हुआ था। वह बस्तर रियासत के शासक, महाराजा रुद्र प्रताप देव के पुत्र थे। हैहयवंशी काकतीय वंश के इस ख़ानदान ने सदियों तक बस्तर पर शासन किया था।
शिक्षा: उनकी शिक्षा-दीक्षा दार्जिलिंग के प्रतिष्ठित सेंट पॉल स्कूल में हुई थी।
गद्दी पर बैठना: 1936 में, जब प्रवीर सिर्फ 7 साल के थे, उनके पिता की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई। इसके बाद उन्हें महाराजा घोषित किया गया, लेकिन नाबालिग होने के कारण एक अंग्रेज अधिकारी की अध्यक्षता में प्रशासनिक परिषद ने शासन चलाया। 1947 में 18 साल के होने पर उन्होंने पूर्ण शासन की बागडोर संभाली।

भारत के साथ विलय और बाद की स्थिति

1948 में, महाराजा प्रवीर ने स्वेच्छा से बस्तर का भारतीय संघ में विलय कर दिया। बस्तर मध्य प्रदेश राज्य का एक हिस्सा बन गया और महाराजा को 'प्रिवी पर्स' (राज्यभत्ता) मिलने लगा।

हालाँकि, विलय के बाद का दौर उनके लिए संतोषजनक नहीं रहा। उन्हें लगता था कि:

1. आदिवासी हितों की अनदेखी: भारत सरकार और मध्य प्रदेश की सरकार बस्तर के आदिवासियों की समस्याओं और उनकी अनूठी संस्कृति को ठीक से नहीं समझ रही है।
2. भ्रष्टाचार: उनका मानना था कि सरकारी अधिकारी आदिवासियों का शोषण कर रहे हैं और विकास के फंड का दुरुपयोग हो रहा है।
3. निजी विवाद: उन्हें अपनी 'प्रिवी पर्स' बंद होने और अपनी निजी संपत्ति (जंगल, भूमि) को लेकर सरकार के साथ विवाद हो गया।

इंदिरा गांधी से 'दुश्मनी' का कारण

यहाँ यह समझना ज़रूरी है कि प्रवीर की 'दुश्मनी' सीधे तौर पर इंदिरा गांधी के व्यक्ति से नहीं, बल्कि उस समय की केंद्र सरकार और उनकी नीतियों से थी। इंदिरा गांधी उस समय देश की प्रधानमंत्री थीं, इसलिए स्वाभाविक था कि उनकी नीतियों के विरोध का केंद्र वही बनीं।

मतभेद के प्रमुख बिंदु:

आदिवासियों के मसीहा: प्रवीर खुद को आदिवासियों का रक्षक मानते थे। वह लगातार सरकार पर आदिवासियों के अधिकारों की अनदेखी करने और उनकी ज़मीन हड़पने का आरोप लगाते रहे।

जनसमर्थन की ताकत: आदिवासी समुदाय उन्हें भगवान की तरह पूजता था। यह जनसमर्थन सरकार के लिए चिंता का विषय बन गया। सरकार इसे "अंधविश्वास" मानती थी, लेकिन प्रवीर के लिए यह उनकी वैधता का आधार था।

सीधी भिड़ंत: प्रवीर ने आदिवासियों की शिकायतों को लेकरी दिल्ली तक मार्च किया और सरकार के खिलाफ जमकर बोले। इससे स्थानीय प्रशासन और केंद्र सरकार के साथ उनका टकराव बढ़ता चला गया।

राजनीतिक संघर्ष: सरकार का मानना था कि प्रवीर अपने निजी हितों (जैसे जमीन के मसले) के लिए आदिवासियों को भड़का रहे हैं और सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा कर रहे हैं।

दुखद अंत: 25 मार्च 1966 की घटना
यह टकराव अपने चरम पर 25 मार्च 1966 को पहुँच गया।

1.  उस दिन महाराजा प्रवीर अपने महल में हज़ारों आदिवासियों के सामने भाषण दे रहे थे।

2.  स्थानीय प्रशासन को खबर मिली कि आदिवासी हिंसक हो सकते हैं (यह बात आज भी विवादित है)।

3.  पुलिस ने महल को घेर लिया और महाराजा को गिरफ्तार करने का प्रयास किया।

4.  इसके बाद क्या हुआ, यह आज तक एक रहस्य है। कहा जाता है कि पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाई और भगदड़ मच गई।

5.  इस गोलीकांड में (महाराजा प्रवीर चंद्र भंज देव, उनकी माँ महारानी प्रफुल्ल कुमारी देवी, और उनके एक छोटे भाई सहित कम से कम 12 लोग मारे गए।) कुछ रिपोर्ट्स में मरने वालों की संख्या बहुत अधिक बताई जाती है।

निष्कर्ष
महाराजा प्रवीर और इंदिरा गांधी/केंद्र सरकार के बीच की "दुश्मनी" मूलतः सत्ता, संसाधनों और आदिवासियों के नेतृत्व को लेकर एक टकराव थी। प्रवीर एक ऐसे traditional शासक थे जो अपनी प्रजा के हक में खड़े थे, जबकि नई लोकतांत्रिक सरकार केन्द्रीकृत नियंत्रण और एकरूपता पर जोर दे रही थी।

आज भी बस्तर के आदिवासी इलाकों में महाराजा प्रवीर को एक शहीद और देवतुल्य व्यक्ति के रूप में पूजा जाता है। 25 मार्च 1966 की घटना बस्तर के इतिहास का एक काले अध्याय के रूप में याद की जाती है, जो एक राजा और उसकी प्रजा के बीच के अटूट रिश्ते का, लेकिन साथ ही एक कठोर राजनीतिक टकराव का भी प्रतीक है।
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