टी. एन. शेषन (तिरुनेल्लई नारायण अय्यर शेषन) भारत के दसवें मुख्य चुनाव आयुक्त (1990–1996) थे, जिन्हें भारतीय चुनाव प्रणाली में क्रांतिकारी सुधारों और निष्पक्ष लोकतंत्र की स्थापना के लिए याद किया जाता है। उनका जन्म 15 मई 1933 को केरल के पलक्कड़ जिले में हुआ था और निधन 10 नवंबर 2019 को चेन्नई में हुआ ।
प्रमुख जीवन परिचय
1. शिक्षा और प्रारंभिक करियर: मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से भौतिकी में स्नातक किया और कुछ समय वहाँ व्याख्याता रहे।
1955 में UPSC परीक्षा पास कर तमिलनाडु कैडर के आईएएस अधिकारी बने। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से लोक प्रशासन में मास्टर्स किया
प्रशासनिक सेवा में विभिन्न पद: मद्रास परिवहन निदेशक (1962), परमाणु ऊर्जा आयोग सचिव, कैबिनेट सचिव (1989), और पर्यावरण मंत्रालय सचिव ।
2. मुख्य चुनाव आयुक्त के रूप में कार्यकाल (1990–1996):
चुनाव सुधार : बोगस वोटिंग रोकने के लिए मतदाता पहचान पत्र अनिवार्य किया। धर्म, जाति या सरकारी संसाधनों के दुरुपयोग पर प्रतिबंध लगाया ।
कड़े नियम: उम्मीदवारों के खर्चे की सीमा तय की, चुनावी घोषणाएँ रद्द कीं, और 14,000 से अधिक उम्मीदवारों को खाता जमा न करने पर अयोग्य ठहराया ।
विवादास्पद फैसले : 1992 में बिहार और पंजाब के चुनाव रद्द किए, तथा 1993 में सरकार से टकराव के बाद देशभर के चुनावों पर रोक लगा दी ।
3. नेताओं से टकराव:
प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के मंत्रियों को सार्वजनिक रूप से फटकार लगाई और कहा: "मैं कोई सहकारी समिति नहीं हूँ" ।
लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं को चुनाव स्थगित करके नाराज किया। लालू उन्हें "भैंसिया पे चढ़ाकर गंगाजी में हेला देंगे" कहते थे ।
एक प्रसिद्ध कथन: "राजनेता सिर्फ दो लोगों से डरते हैं—भगवान और शेषन" ।
4. प्रशासनिक अप्रोच:
मद्रास में परिवहन निदेशक रहते हुए खुद बस चलाकर यातायात समस्याएँ समझीं, कंडक्टर और मैकेनिक की भूमिका भी निभाई ।
पर्यावरण सचिव के रूप में टिहरी और सरदार सरोवर बाँध परियोजनाओं का विरोध किया ।
5. सेवानिवृत्ति के बाद:
1997 में राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ा, लेकिन के. आर. नारायणन से हार गए।
1999 में कांग्रेस के टिकट पर गांधीनगर से लालकृष्ण आडवाणी के खिलाफ चुनाव हारे ।
पुस्तकें : द डीजेनरेशन ऑफ इंडिया और ए हर्ट फुल ऑफ बर्डन लिखीं ।
6. सम्मान: 1996 में रैमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित ।
विरासत
शेषन ने चुनाव आयोग को एक स्वतंत्र और शक्तिशाली संस्था बनाया। उनके सुधारों ने भारतीय लोकतंत्र को पारदर्शिता दी, जिसके कारण आज भी उन्हें "चुनाव सुधारों का जनक" माना जाता है ।