आर्कोट के नवाबों की पूरी कहानी और वर्तमान नवाब को आज भी यह उपाधि क्यों दी जाती है, इसका विवरण इस प्रकार है:
आर्कोट के नवाबों की पूरी कहानी
1. नवाबियत की शुरुआत (17वीं शताब्दी):
आरंभ: आर्कोट के नवाबों का शासन लगभग 1690 से 1855 तक दक्षिण भारत के कर्नाटक क्षेत्र (Carnatic region) पर था। उन्हें "कर्नाटक के नवाब" भी कहा जाता था।
मुगल प्रतिनिधि: मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने मराठों के खिलाफ़ जीत के लिए ज़ुल्फ़िकार खान नुसरत जंग को 1692 में कर्नाटक का पहला सूबेदार (गवर्नर) नियुक्त किया, जिसकी सीट (राजधानी) शुरू में जिंजी थी, जिसे बाद में आर्कोट ले जाया गया। वे कानूनी तौर पर हैदराबाद के निज़ाम के अधीन थे।
2. स्वतंत्रता और सत्ता का उत्कर्ष (18वीं शताब्दी):
स्वतंत्रता: मुगल साम्राज्य के कमज़ोर होने पर, नवाब सादतुल्ला खान प्रथम (1710-1732) ने खुद को लगभग स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया और आर्कोट को अपनी राजधानी बनाया।
कर्नाटक युद्ध: 18वीं शताब्दी में, नवाबों की शक्ति को फ्रांसीसी और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी दोनों से चुनौती मिली। नवाबों के उत्तराधिकार को लेकर दोनों यूरोपीय शक्तियों के बीच कर्नाटक युद्ध हुए।
ब्रिटिश प्रभाव: रॉबर्ट क्लाइव के नेतृत्व में अंग्रेजों ने आर्कोट की घेराबंदी में जीत हासिल की, जिससे दक्षिण भारत में उनकी सैन्य श्रेष्ठता स्थापित हुई।
वालजाह वंश: मुहम्मद अली खान वालाजाह (1749-1795) को ब्रिटिश समर्थन से नवाब बनाया गया।
3. शक्ति का पतन और ब्रिटिश नियंत्रण (19वीं शताब्दी):
संधि और अधिकार समर्पण: नवाबों ने बढ़ते कर्ज और सैन्य खर्चों के कारण धीरे-धीरे अपने अधिकार अंग्रेजों को सौंप दिए। 1801 की संधि के तहत, कर्नाटक क्षेत्र का पूरा नागरिक, सैन्य और राजस्व प्रशासन हमेशा के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी को हस्तांतरित कर दिया गया। इसके बाद नवाब केवल नाममात्र के शासक (Titular head) बनकर रह गए।
उपाधि का उन्मूलन (1855): 1855 में, 13वें नवाब गुलाम मुहम्मद ग़ौस खान की बिना किसी पुरुष वारिस के मृत्यु हो गई। उस समय के गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौजी ने 'डॉक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स' (व्यपगत का सिद्धांत) के तहत नवाब की उपाधि और राज्य को पूरी तरह समाप्त कर दिया।
वर्तमान नवाब (राजकुमार) की स्थिति
राज्य समाप्त होने के बाद भी, यह वंश परंपरा जारी रही, लेकिन 'नवाब' की उपाधि बदल गई।
आज भी 'नवाब' (वास्तव में 'राजकुमार') क्यों कहा जाता है:
ब्रिटिश द्वारा उपाधि का पुनर्गठन (1867):
1855 में नवाब की उपाधि समाप्त होने के 12 साल बाद, दिवंगत नवाब के चाचा अज़ीम जाह ने नवाब के पद के लिए दावा किया।
ब्रिटिश सरकार ने 1867 में एक समझौता किया। उन्होंने 'नवाब' की पुरानी उपाधि बहाल नहीं की, बल्कि एक नई उपाधि 'हिज हाइनेस द प्रिंस ऑफ आर्कोट' (His Highness the Prince of Arcot) या 'अमीर-ए-आर्कोट' प्रदान की।
अज़ीम जाह को वंशानुगत आधार पर यह उपाधि, साथ ही राजनीतिक पेंशन (Political Pension) और चेन्नई में अमीर महल निवास के उपयोग का अधिकार प्रदान किया गया। यह उपाधि स्थायी रूप से (in perpetuity) दी गई थी।
भारत सरकार द्वारा निरंतर मान्यता:
1 विशेषाधिकार: भारत की स्वतंत्रता (1947) और रियासतों के विशेषाधिकारों (प्रिवी पर्स) के उन्मूलन (1971) के बावजूद, आर्कोट के राजकुमार का पद एक अद्वितीय अपवाद बना रहा।
2 कानूनी मान्यता: भारत सरकार ने ब्रिटिश शासन के दौरान की गई इस संधि को जारी रखने का फैसला किया।
3 वर्तमान स्थिति: नवाब मुहम्मद अब्दुल अली इस वंश के 8वें राजकुमार हैं। उन्हें भारत सरकार द्वारा नाममात्र के राजकुमार (Titular Prince) के रूप में मान्यता प्राप्त है।
4 मान्यता का उद्देश्य: यह उपाधि अब कोई राजनीतिक या शासकीय अधिकार नहीं रखती है, बल्कि इसे औपचारिक और सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए एक वंशानुगत सम्मान के रूप में मान्यता दी जाती है।
5 राजकीय दर्जा: उन्हें भारत सरकार की वरीयता क्रम (Order of Precedence) में एक राज्य कैबिनेट मंत्री के लगभग समकक्ष दर्जा प्राप्त है।
6 सुविधाएँ: उन्हें अभी भी राजनीतिक पेंशन मिलती है और चेन्नई में अमीर महल उनके आधिकारिक निवास के रूप में भारत सरकार द्वारा सेंट्रल पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट (CPWD) के माध्यम से अनुरक्षित है।
संक्षेप में, आज नवाब मुहम्मद अब्दुल अली को नवाब कहने का कारण उनका ऐतिहासिक वंश और ब्रिटिश सरकार द्वारा 1867 में दी गई और भारत सरकार द्वारा जारी रखी गई 'प्रिंस ऑफ आर्कोट' की विशेष उपाधि है। वह एक शासक नवाब नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक और सामुदायिक नेता के रूप में अपने पद को बरकरार रखते हैं।